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हम क्या कर रहे ; कहाँ जा रहे हैं – – – – – – ? यह एक विचारणीय प्रश्न है , भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति युगों युगों से एक संस्कारिक संस्कृति रही है . हमारे युग पुरुष एक मिशाल कायम किये है , अपनी कर्त्तव्य परायणता का , उनके प्रयासों का फल है की हमारी संस्कृति का नामों निशा अभी तक बचा हुआ है , हम लोग तो उनके आदर्शों को ताक पर रख दिए हैं और उनके नाम को मिटटी में मिलाने पर तुले हुए हैं . एक तरफ जहाँ हमारे युग दृष्टा सभी को एक साथ लेकर चलने का प्रयास करते थे वही आज हम एक दुसरे को अलग अलग करने पर तुले हुए हैं . आज हम भाई भाई के खून के प्यासे हो गए , दूसरों की बात तो छोडिये .
आज हम अपने स्वार्थों को पूरा करने के लिए धर्मवाद , जातिवाद . सम्प्रदायवाद , क्षेत्रवाद , वर्गवाद , और अब तो इस्त्रीवाद, पुरुश्वाद , अगड़ेवाद , पिछ्ड़ेवाद को भी शामिल कर रहे है , ताकि किसी भी तरह से फूट डालकर अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूरा किया जा सके. लोगो के भावनाओं के साथ खिलवाड़ करना आम बात हो गयी है ,जरा सोचिये उस व्यक्ति के ऊपर क्या गुजरती होगी जिसके भावनाओं को कुरेद कर पूरा नहीं किया जाता है , किसी ने ठीक ही कहा है कि – – –
आश जब बंध के टूट जाती है ,
रूह किस तरह कशमसाती है l
अरे पूछो उस बदनसीब लड़की से ,
जिसकी बारात दरवाजे से लौट जाती है l
आज इन्सान को इन्सान समझने से परहेज किया जा रहा है l इन्सान को भेड़ बकरियों की तरह अपने स्वार्थो को पूरा करने के लिए हलाल किया जा रहा है ; थोड़ी थोड़ी बात पर हम एक दूसरे के जान के प्यासे हो जा रहे हैं , हमारे अन्दर से शब्र नाम की चीज ही ख़त्म हो गयी है, हम तो ये चाहते हैं की कब कैसे किस तरह से मौका मिले की अपने स्वार्थों को पूरा कर सकें , आज हम किस ओर जा रहे हैं हमें खुद नहीं पता है अगर पता होता तो ऐसा व्यवहार हम कतई नहीं करते , हमें अपने दिलो दिमांग को खोल कर सोचना चाहिए कि हम क्या कर रहे ; कहाँ जा रहे हैं – – – – ?
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