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उसको करते सतसंगत देखा

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मैँने कली को खिलते देखा ।

मस्त चमन को हिलते देखा ।

बाला के निर्मल नयनोँ मेँ काम दीप को जलते देखा ॥

नयनोँ से स्पर्श मात्र कर मन मेँ ज्वार उफनते देखा ।

तरुणी के यौवन श्रृंगार पर सबल का सार निकलते देखा ॥

शंकर विश्वामित्र पराशर सबका हाल बदलते देखा ।

कः पन्था का सूत्र याद कर क्लिँटन को भी फिसलते देखा ॥

फिसलन वाली जमीँ पे चलना नहीँ चाहिए – कहते देखा ।

पर उसी राह पर उपदेशक को शतशत बार फिसलते देखा ॥

देख देख कर लोगोँ को करते देखा मैँने अनदेखा ।

अपने बुरे हाल पर उनको , अगले ही क्षण रोते देखा ॥

कलियाँ जिसके साथ रहे उसके चेहरे का रंगत देखा ।

कली ने दी फटकार जिसे- उसको करते सतसंगत देखा ॥

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